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कमलाकुच चूचुक कुंकुमतॊ नियतारुणि तातुल नीलतनॊ ।
कमलायत लॊचन लॊकपतॆ विजयी भव वॆंकटशैलपतॆ ॥ १ ॥
स चतुर्मुखषण्मुख पंचमुख प्रमाखाखिल दैवतमौळिमणॆ ।
शरणागत वत्सल सारनिधॆ परिपालय मां वृषशैलपतॆ ॥ २ ॥
अतिवॆलतया तव दुर्विषहै- रनुवॆलकृतैरपराधशतै: ।
भरितं त्वरितं वृषशैलपतॆ परया कृपया परिपाहि हरॆ ॥ ३ ॥
अधिवेंकटशैलमुदारमतॆर जनताभि मताधिक दानरतात ।
परदॆवरतया गडितान्नि गमै: कमलादयितान्न परं कलयॆ ॥ ४ ॥
कल वॆणुरवावश गॊपवधू शतकॊटिवृतात स्मरकॊटिसमात ।
प्रतिवल्लविकाभिमतात सुखदात वसुदॆवसुतान्न परं कलयॆ ॥ ५ ॥
अभिराम गुणाकर दाशरथॆ जगदॆक धनुर्धर धीरमतॆ ।
रघुनायक राम रमॆश विभॊ वरदॊ भव दॆव दयाजलधॆ ॥ ६ ॥
अवनीतनया कमनीय करं रजनीकरचारु मुखांबुरुहम ।
रजनीचर राजतमॊमिहिरं महनीयमहं रघुराममयॆ ॥ ७ ॥
सुमुखं सुहृदं सुलभं सुखदं स्वनुजं च सुखायममॊघशरम् ।
अपहाय रघूद्वहमन्यमहं न कथंचन कंचन जातु भजॆ ॥ ८ ॥
विना वॆंकटॆशं न नाथॊ न नाथ: सदा वेंकटॆशं स्मरामि स्मरामि ।
हरॆ वेंकटॆशं प्रसीद प्रसीद प्रियं वॆंकटॆश प्रयच्छ प्रयच्छ ॥ ९ ॥
अहं दूरतस्तॆ पदांभॊजयुग्म प्रणामॆच्छयाऽगत्य सॆवां करॊमि ।
सकृत्सॆवया नित्यसॆवाफलं त्वं प्रयच्छ प्रयच्छ प्रभॊ वॆंकटॆश ॥ १० ॥
अज्ञानिना मया दॊषा न शॆषान् विहितान् हरॆ ।
क्षमस्व त्वं क्षमस्वं त्वं शॆषशैल शिखामणॆ ॥ ११ ॥
॥ इति श्री वेंकटॆश स्त्रॊत्रं संपूर्णम् ॥